डॉ.दीपक अग्रवाल/भोलेनाथ मिश्र
उत्तर प्रदेश में बेसिक शिक्षा परिषद के स्कूलों में स्वेटर वितरण को लेकर तनातनी का माहौल कायम हो गया। कई जिलां में स्वेटर वितरण का काम शुरू भी हो गया है। जबकि कुछ शिक्षक संगठन विरोध कर रहे तो कुछ खामोश रहकर तमाशा देख रहे हैं।
200 रुपए की कीमत के स्वेटरों के वितरण को शासन ने 100 रुपए प्रतिछात्र के हिसाब से पहली किश्त जारी कर दी है। वहीं कुछ जांबाज शिक्षकों ने शासन की धनराशि की परवाह किए बिना अपने स्तर से स्वेटरों का वितरण भी कर दिया है।
कहते हैं कि-“ समय चूकि फिर का पछताने , का बरखा भये कृषि सुखाने“। हर काम समय पर ठीक होता है और समय निकल जाने के बाद उस काम की कोई कीमत नहीं रह जाती है। इसी तरह सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं पर भी समय की बड़ी कीमत होती है। सरकारी खजाने का पैसा भी खर्च हो जाता है लेकिन उसका समय पर लाभ न मिलने से योजना उद्देश्य हीन हो जाती है।
सरकार शिक्षा का उजियारा घर घर पहुंचाने का भले ही प्रयास कर रही हो और करोड़ों अरबों रुपये खर्च कर रही हो लेकिन समय निर्धारण के अभाव में सरकार की मंशा लक्ष्य नहीं प्राप्त कर पा रही है।
सरकार और उसके जिम्मेदार अधिकारियों की मनमानी कह लीजिए चाहे लापरवाही कहें कि शिक्षा सत्र शुरू होने के महीनों बाद तक ड्रेस व किताबें उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। सरकार अब तो स्कूली बच्चों को जूता मोजे के साथ सर्दी से बचाने के लिए स्वेटर भी दे रही है।जूता मोजा ड्रेस का वितरण दिसम्बर तक किया गया है और दिसम्बर महीने से ही हो रही कड़ाके की जानलेवा ठंड पड़ने और शीत लहर चलने के बावजूद सभी विद्यालयों के बच्चों को स्वेटर नहीं मिल सके हैं।
अगर यह सर्दी समाप्त होने के बाद मिलते हैं तो सोचने समझने की बात है कि इसका क्या लाभ मिलेगा ? सरकारी धन भी खर्च होगा लेकिन उसका समुचित लाभ समय पर नही मिलेगा और सरकार का लक्ष्य प्रभावित होगा।
अब जनवरी महीने में सरकार को स्वेटर की सुध आयी है और उसने दो सौ रुपये मूल्य दर पर बच्चों को स्वेटर उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी शिक्षकों को सौपी है। कुछ जगहों पर शिक्षकों ने अपने संगठनों के माध्यम से सरकार की इस नीति का विरोध करना और हाथ खड़े करना शुरू कर दिया है।