डॉ.दीपक अग्रवाल
लखनऊ/अमरोहा। बेसिक शिक्षा परिषद और माध्यमिक शिक्षा परिषद के स्कूलों में घटते नामांकन को सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं। इसके लिए शिक्षकां को जिम्मेदार ठहराना अनुचित है।
गांव-गांव सरकारी स्कूल खुल गए हैं, मिड डे मील, जूता मोजा, ड्रेस, किताबें, स्वेटर सभी कुछ दिया जा रहा है लेकिन सरकारी स्कूलों में साल दर साल छात्रों का नामांकन खिसकता जा रहा है। इसकी कई वजह है।
एक सरकार ने इन स्कूलां में पढ़ने वाले सभी बच्चां को गरीब मान लिया है तभी को खाना, जूते मौजे आदि सब कुछ फ्री दिया जा रहा है। इससे अभिभावकों में यह संदेश जा रहा है कि सरकारी स्कूलों में तो गरीबों के बच्चे ही पढ़ते हैं। इसीलिए तमाम ऐसे अभिभावक जो संपन्न है अपने बच्चां इन स्कूलों में नहीं पढ़ाते हैं।
दूसरा मुख्य बिंदु बड़े स्तर पर निजी स्कूलों को हर साल मान्यता प्रदान करना है। सूबे के अधिकतर गांव में प्राइवेट स्कूल भी संचालित हो रहे हैं। अगर अमरोहा जनपद का उदाहरण ले तो जिले में 1558 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूल हैं तो प्राइवेट स्कूलां की संख्या 2500 से भी अधिक है। ऐसा ही माध्यमिक स्तर पर है। जिले में 10 राजकीय इंटर कालेज और 33 कालेज अनुदानित है। जबकि निजी कालेजों की संख्या 250 से भी अधिक है।
आमजन के मन में यह बात बैठ गई है कि सरकारी स्कूलों में निजी स्कूलों की तुलना में पढ़ाई अच्छी नहीं होती है। इसीलिए निजी स्कूलों में लगातार छात्र संख्या बढ़ रही है और सरकारी में घट रही है।
कीमत चुकाने पर अहसास होता है
अगर हम किसी वस्तु की कीमत चुकाते हैं तो उसका महत्व समझते हैं और जब वस्तु फ्री मिलती है तो वह महत्वहीन हो जाती है। ऐसा ही फ्री मिलने वाली सरकारी शिक्षा के साथ हो रहा है।
दो शिक्षकों के भरोसे स्कूल
शासन शिक्षकों की कमी को दूर नहीं कर पा रहा है। अगर किसी स्कूल में 60 छात्र हैं तो दो शिक्षक तैनात होंगे। जबकि निजी स्कूलों में ऐसा नहीं है।
निजी स्कूलों पर नियंत्रण जरूरी
अगर सरकार सराकारी स्कूलों का संचालन ईमानदारी के साथ चाहती है तो निजी स्कूलां पर नियंत्रण करना होगा।