डाॅ. दीपक अग्रवाल
अमरोहा। ( सन शाइन न्यूज)
इस तथ्य में तो कोई संदेह नहीं है कि राजनीति में शीर्ष स्तर पर और देश के हर क्षेत्र में महिलाएं परचम लहरा रही हैं लेकिन स्थानीय स्तर पर प्रधान पति/पुत्र/सुसर, चेयरमैन पति/पुत्र/ससुर से मुक्ति नहीं मिल पा रही है।
राजनीति में शीर्ष स्तर पर सुषमा स्वराज, सोनिया गांधी, निर्मला सीतारमण, ममता बनर्जी, मायावती समेत अन्य महिलाएं देश और प्रदेश को दिशा देने का काम कर रही हैं।
लेकिन सूबे की तमाम ग्राम सभाओं में महिला प्रधान के स्थान पर उनके पति, पुत्र और ससुर काम करते नजर आते हैं। मजेदार बात तो यह है कि प्रधान पति, पुत्र और ससुर सरकारी कागजों और यहां तक की चैक पर भी साइन करते हैं। बैठकों में भी ये ही भाग लेते हैं और दबंगई दिखलाते हैं। ऐसा ही हाल अन्य निकायों में है वहां चेयरमैन पति/पुत्र/सुसर काम करते नजर आते हैं। निकायों में मुट्ठीभर महिला जनप्रतिनिधि ही मजबूत है।
प्रतिनिधि के रूप में जनहित का काम करना बुरा नहीें है लेकिन निर्णयगत बैठकों में भाग लेना और सरकारी कागजों पर हस्ताक्षर करना उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
शासन की इस ओर गंभीरता से सोचना चाहिए और उचित कदम उठाने चाहिए। तभी स्थानीय स्तर पर महिला जनप्रतिनिधि सशक्त हो सकेंगी।
महिला जनप्रतिनिधियांे को प्रशिक्षण की जरूरत
कोई भी चुनाव जीत कर जनप्रतिनिधि बन सकता हैं। महिला जनप्रतिनिधियों को बोलने, बैठक संचालित करने और उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
महिला जनप्रतिनिधि का प्रतिनिधि महिला ही हो
नीतिगत बैठकों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधि को ही भाग लेना चाहिए। अगर उन्हें अपरिहार्य कारणों से प्रतिनिधि भेजने की जरूरत है तो महिला प्रतिनिधि को भेजने की ही व्यवस्था होनी चाहिए। तभी महिलाओं के सशक्तिकरण की बात हो सकती है। वरना यह सशक्तिकरण कागजों में ही सिमट जाएगा।