इस रचना को मैंने 14 जनवरी 2020 को मकर सक्रंति की पूर्व संध्या पर लिखा है। पंतगबाजी भी हमारी संस्कृति का हिस्सा है। बचपन में मैं पतंग उड़ाता था लेकिन आज बहुमंजिला इमारतों के कारण पंतगबाजी लुप्त हो गई। बचपन की यादों को समेट और आज के माहौल पर पेश है रचना
बहुमंजिला इमारत और पतंग
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पतंग का जिक्र आते ही,
मैं बचपन में खो जाता हूं।
मैंने खूब पंतग उड़ाई,
किया खूब मनोरंजन।
कभी सुल्ली की,
तो कभी विमल की काटी पतंग।
कोई मुझे समझाएं इन,
बहुमंजिला इमारतों मेें कैसे उड़े पतंग।
डाॅ. दीपक अग्रवाल
अमरोहा।