डाॅ. दीपक अग्रवाल
अमरोहा/उत्तर प्रदेश। (सनशाइन न्यूज)
आखिकार सूबे मंे बेसिक शिक्षा परिषद के स्कूलों को एक जुलाई से टीचर्स के लिए खोल ही दिया गया है। जो किसी पहेली से कम नहीं है। तमाम तर्क भी बेसिक शिक्षा विभाग के रणनीतिकारों को रास नहीं आएं।
कोरोना काल में केंद्र सरकार और स्वयं उत्तर प्रदेश सरकार ने 31 जुलाई तक सभी प्रकार के शिक्षण संस्थान बंद रखने के आदेश दिए हैं। फिर छात्र-छात्राओं के बिना शिक्षक और शिक्षिकाओं को स्कूल में मौजूद रहने का आदेश किसी तुगलकी फरमान से कम नहीं है। विश्वविद्यालय की परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं तो फिर शिक्षकों को स्कूलांे में बैठाने से शासन की कौन सी मंशा पूरी होगी। अगर कोई अनहोनी हुई तो इससे शासन की मुश्किलें ही बढ़ेगी।
इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कोरोना काल मेें बंदी के दौरान और ग्रीष्मकालीन अवकाश में भी शासन के आदेशों का अक्षरशः पालन किया है। जरूरत होने पर जून के अवकाश में टीचर्स ने स्कूलों में जाकर काम किया है।
दूसरी ओर रणनीतिकारों को यह भी ध्यान रखना चाहिए की टीचर्स को महज नौकर नहीं समझा जा सकता है। यह पेशा एक गरिमापूर्ण है ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न नहीं किया जाना चाहिए जिससे इसकी गरिमा चोटिल हो।
स्कूलों में पहुंचने के व्यवहारिक पक्ष पर भी विचार होना चाहिए। टीचर्स के मोबलाइजेशन में कोरोना काल में सफर बढ़ने से भी दिक्कत होगी।
टीचर्स आनलाइन प्रशिक्षण भी ले रहे हैं और व्हाट्सअप ग्रुप पर बच्चों को पढ़ा भी रहे हैं। हालांकि आनलाइन शिक्षण आपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रहा है।
एक जुलाई को सूबे में परिषदीय स्कूल खोले गए और टीचर्स मौजूद भी रहे। लेकिन ऊहापोह की स्थिति ही रही। जो काम टीचर्स को बताए गए हैं उनके लिए पूरे समय की उपस्थिति तो जरूरी भी नहीं है। इसीलिए बरेली में सुबह 10 बजे से दोपहर एक बजे तक का समय तय किया गया।
निष्कर्षतः यह ही कहा जा सकता है कि रणनीतिकारों को सभी पक्षों पर और तमाम संगठनों की जनहित से जुड़ी मांगों पर मंथन करते हुए स्कूलों में टीचर्स की उपस्थिति के संबंध में पुनःविचार करना चाहिए। यह शर्त भी जोड़ी जा सकती है कि शासन का कोई कार्य प्रभावित नहीं होनी चाहिए। जैसे मिड डे मील वितरण, यूनिफार्म वितरण आदि।