डॉ. दीपक अग्रवाल
अमरोहा/उत्तर प्रदेश (सनशाइन न्यूज)
कहानी रेशमी डोर के लेखक तनिश कुमार गिरि युवा साहित्यकार हैं। इनकी यह कहानी उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ द्वारा पुरस्कृत हैं। जो कि विधवा पुनर्विवाह पर समाज के नजरिए को बदलने की प्रेरणा देती है। तनिश अमरोहा में कला सांस्कृतिक परिषद संगीत विद्यालय संबंद्ध प्रयाग संगीत समिति प्रयागराज का भी संचालन करते हैं। प्रस्तुत है उनकी कहानीः
रेशमी डोर: कहानीकार तनिश कुमार गिरि
बोलो सतीश मुझे यहाँ क्यों बुलाया? अभी तो बाबूजी को नाश्ता भी नहीं दिया, तुरंत यहाँ चली आयी।- सुचित्रा ने सफ़ेद साड़ी का आँचल सर पर ढकते हुए कहा।
तुमने कुछ सोचा अपने लिए?…..हमारे लिए?- सतीश उगते हुए सूरज को देखते हुए बोला।
तुम क्यों नहीं समझते? ये देखो मेरी सफ़ेद साड़ी, जो सारे समाज को दिखाई देती है पर तुम्हें नहीं।- सुचित्रा ने साड़ी का पल्लू सतीश को दिखाते हुए कहा।
औऱ तुम्हारा क्या? अफ़सोस तो इसी बात का होता है सुचित्रा कि समाज को सिर्फ तुम्हारी सफ़ेद साड़ी दिखाई देती है, तुम नहीं।
नहीं देखते है तो ना देखे। मैं ऐसे ही ज़िंदगी काट लूँगी। पर हाथ जोड़कर तुमसे कहती हूँ, दया करके मुझ पर और दया ना करो।- भर्राए गले से सुचित्रा ने सतीश से कहा। उसकी आंखों से आँसू बह निकले। सतीश ने तुरंत जेब से रुमाल निकालकर उसके आँसू पोछते हुए कहा- समाज की निर्दयता पर भी मुझें इतना दुःख नहीं होता सुचित्रा जितना तुम्हारे आँसू देखकर होता है। ठीक है अबसे मैं फ़िर ऐसी बात नही करूंगा।
सुचित्रा घर आकर अपने बेड पर गिर गयी और फ़ूट फ़ूट कर रोने लगी। एक गहरी सांस लेने के लिए उसने अपना सर उठाया और दीवार पर लगी राकेश की माला चढ़ी फोटो पर जाकर उसकी नज़रे अटक गई। राकेश जो उसका पति था, उसका साथी था, उसका आसरा था, जो एक इंसान ना होकर उसका पूरा संसार था, उसका सर्वस्व था। दो साल पहले उसे ब्याहकर इस घर मे लाया था। और कितना कुछ बदल गया था इन दो सालों में। समय के कांटे पर नज़र दौड़ाए तो सबकुछ एक सपना सा लगता है। कभी सोचा भी ना था सुचित्रा ने कि यही आसरा, यही साथी, यही सर्वस्व एक दिन उसे अकेला छोड़कर चला जायेगा।
सुचित्रा ने दबे पांव बाबूजी के कमरे में प्रवेश किया और नाश्ता टेबल पर रखकर मुड़ी ही थी कि बाबूजी की करुण आवाज़ ने उसे रोक लिया।
सुचित्रा, ऐसा कब तक चलेगा?
क्या बाबूजी?
तुम हमेशा अकेली रहती हो। दिन भर इस घर में बंद। कितनी बार कहा है कि लोगो से, पड़ोसियों से मिला जुला करो, पर नहीं। क्या ये अकेलापन तुम्हें खलता नहीं है?- बाबूजी की आवाज़ में करुणा थी और आंखे भीग चुकी थी।
बिल्कुल नहीं बाबूजी। अब ये अकेलापन ही तो है मेरे पास जिसके सहारे जी रही हूँ। अगर ये भी छिन गया तो फिर कहाँ जाऊँगी?-सुचित्रा ने नज़रे झुकाकर बायीं हथेली से आंसू पोछते हुए कहा।
सुचित्रा! ….क्या तुम दोबारा….
नहीं बाबूजी!!…भगवान के लिए ऐसा ना कहिये।-सुचित्रा ने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा।-जो मेरे थे, मेरे है और हमेशा रहेंगे, उन्हें छोड़कर, उन्हें भूलकर मैं अब फिरसे अपनी एक नई दुनियां नहीं बसा सकती। और फिर कौन कहता है मैं अकेली हूँ? क्या आप मेरे कुछ भी नहीं?- सुचित्रा आगे कहती गयी- आप मेरे पिता है, बल्कि उनके गुज़र जाने के बाद आप पिता से भी ज्यादा है। आज मेरे माता पिता ज़िंदा होते तो भी शायद मुझे आश्रय ना दे पाते।
तो बेटी इस बूढ़े बाप पर तरस खाओ। ज़िन्दगी अपनी जी चुका हूँ। जवान बेटे के जाने का दुःख भी देख चुका हूँ। अब तुम्हारा सुखी जीवन देखकर चैन से मरना चाहता हूँ। सतीश अच्छा लड़का है। तुम्हे पसंद भी करता है। मेरी बात मानो और उसका हाथ थाम लो। मेरी आखि़री इच्छा समझकर ही।- बाबूजी की आंखों से आंसू झलने लगे। सुचित्रा भी बिना जवाब दिए रोते हुए अपने कमरे में चली गयी। रात भर उसे नींद नही आयी। सुचित्रा पूरी रात उस चीज़ के बारे में सोचती रही जो उसकी इस हालत के लिए सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार था………हमारा समाज।
ये कैसा अनर्थ किया शास्त्री जी?…..अपनी बहू का फ़िर से विवाह कर दिया? ……क्या यही प्रेम था तुम्हारा अपने इकलौते बेटे के लिए?…..उफ़्फ़! उसकी आत्मा को कितना कष्ट हुआ होगा ये देखकर।…..किससे किया शास्त्री जी?….उस सतीश से?…वाह! बहुत बढ़िया! इसीलिए तुम्हारे घर के चक्कर लगाता था वो।….मैं भी तो कहूं कि इस कलयुग में दूसरो के लिए इतना करने वाला वो कैसे बन गया। अब पता चला।…..तभी तो साग सब्जी से लेकर तुम्हारी दवाईयों तक कि ख़बर रहती थी उसे।…….अरे शास्त्री, तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।
ऐसे पता नहीं कितने सवालों से बाबूजी को इस उम्र में जूझना पड़ेगा। सतीश के साथ साथ उसके ख़ुद के चरित्र पर भी प्रश्न उठाये जाएंगे। और अगर ऐसा कुछ नहीं भी हुआ तो क्या सतीश का परिवार मुझे स्वीकार करेगा? और अगर उन्होंने स्वीकार नहीं किया तो क्या बाबूजी ये सब सह पाएंगे? यही सोचते सोचते सुचित्रा को नींद आ गयी।
अगली सुबह सुचित्रा बाजार गयी थी, वही उसे सतीश मिल गया।
कैसी हो सुचित्रा?
मैं ठीक हूँ सतीश। तुम्हे यहाँ ज्यादा देर मेरे साथ नहीं रहना चाहिए।ष्
लगता है ज्यादा सोचकर सोयी हो कल रात।- सतीश ने दो कदम पीछे हटते हुए कहा।
कुछ भी समझ लो सतिश। मुझे मेरी दुनियां में अकेला छोड़ दो।- सुचित्रा ने साड़ी के पल्लू से आंखे पोछते हुए कहा।
हरगिज़ नहीं। मैं तुम्हे ऐसे नहीं देख सकता। बस अब बहुत हुआ। अगर हम आज भी ऐसे समाज में रह रहे है जहाँ पुनर्विवाह को पाप समझा जाता है तो धिक्कार है ऐसे समाज पर। मैं ऐसे समाज में रहकर क्या करूँ जहाँ एक इंसान की ख़ुशियां छिन जाने पर उससे फिर कभी ख़ुश होने का अधिकार तक छीन लिया जाता है।- इतना कहकर सतीश सुचित्रा को तांगे में बिठाकर विदा करता है।
सतीश घर पहुँचकर सीधे अपने पिता के पास गया। आज उसने ठान लिया थी कि वो सुचित्रा को अब और ऐसे दुख में नहीं रहने देगा।
पिताजी मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बात करनी है। – सतीश ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
और उस बात में दो नाम है। एक तुम्हारा और दूसरा सुचित्रा का।…है ना? – सतीश के पिताजी ने अपने चश्मे को ठीक करते हुए कहा।
तो इसमें गलत क्या है? क्या उसे दोबारा अपने जीवन को सुधारने के लिए, खुश रहने के लिए ये समाज एक मौका तक नहीं दे सकता?- सतीश ने आक्रोश भरे स्वरों में कहा। और अगर ऐसा है तो मैं शर्मसार हूँ कि मैं भी इसी समाज का हिस्सा हूँ।
सतीश..मैंने तुम्हें हमेशा एक समझदार पुत्र की नज़र से देखा है तुम आज भी जो करना चाहते हो उसपर भी मुझें गर्व है। समाज व्यक्ति के लिए बनाया जाता है और जो प्रथा व्यक्ति की आज़ादी और उसकी आत्मा का हनन करे, ऐसी प्रथा का वास्तव में बहिष्कार करना चाहिये। और फिर जो भी हुआ उसम सुचित्रा का भला क्या दोष? मुझे भी सुचित्रा बहुत पसंद है और तुम्हारे लिए वो एक सुयोग्य जीवनसाथी साबित होगी। पर बेटा.. एक बात कहना अपना फ़र्ज़ समझता हूँ, तुम्हारा और सुचित्रा का रिश्ता सामाजिक तौर पर रेशमी डोर के जैसा है। इसमें जितना आकर्षण है उतनी ही कोमलता भी है, इसलिए डर लगता है कि कही कोई सामाजिक खिंचाव आने पर ये रेशमी डोर टूट ना जाये।
सुचित्रा की वफ़ादारी और कर्तव्यनिष्ठता ने इस रेशमी डोर को फ़ौलाद बना दिया है पिताजी। मैं समाज के हर प्रहार के लिए तैयार हूं, पर इस रिश्ते पर कोई आंच नही आयेगी ये वचन देता हूँ।- सतीश ने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा।
तुमसे ऐसी ही उम्मीद थी बेटा। चलो अब हमें देर नहीं करनी चाहिये। चलकर शास्त्री जी से बात करते है।- सतीश के पिताजी ने अपनी छड़ी उठाते हुए कहा।
अभी रात बहुत हो गयी है पिताजी। सुबह चलते है और इस सबसे पहले मैं सुचित्रा से भी बात करना चाहता हूँ। और सबसे पहले उसी को ख़बर देना चाहता हूँ कि आप इस रिश्ते के लिए मान गए है।- सतीश ने कहा।
ठीक है। तो कल सुबह चलते है।
शाम के वक़्त सतीश सुचित्रा के घर पहुँचा तो पता चला कि वो मंदिर गयी है। इसके बाद सतीश सीधे मंदिर पहुँचा।
मंदिर की सीढ़ियों पर ही सुचित्रा उसे मिल गयी।
लाओ ये थाली मुझें दे दो।- सतीश ने सुचित्रा के हाथ से पूजा की थाली लेते हुए कहा।
सतीश कब तक तुम मेरे लिए ये सब करते रहोगे? आस पड़ोस के लोग भी अब तो तुम्हें शक की निगाहों से देखने लगे है।- सुचित्रा का चेहरा कुछ उतर गया था।
बस कुछ दिन और, उसके बाद लोगो की निगाहों से मुझें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।- सतीश ने अपने उत्साह को दबाते हुए कहा।
फ़र्क तो तुमको आज भी नहीं पड़ता। पर मुझे पड़ता है सतीश। मुझे इसी समाज मे जीना है और यही मरना है।- सुचित्रा ने सफ़ेद साड़ी का पल्लू संभालते हुए कहा।
तुम्हें हक़ है अपने जीवन का फैसला ख़ुद करने का, उसे एक नई दिशा देने का, फिर ये सब क्यों सोचती हो? तुम्हे ऐसा लगता है कि दुबारा अपनी ज़िंदगी की नई शुरुआत करना अगर समाज की नज़र में पाप है तो ये सरासर गलत है। तुम ख़ुद के साथ अन्याय कर रही हो। अपने लिए अन्याय करके समाज के लिए न्याय की बाते सोचना गलत है। बाबूजी के साथ भी तुम गलत कर रही हो। अपने साथ नही तो कम से कम अपनों के साथ तो न्याय करो।-सतीश ने एक सांस में कहा।
और फिर गिर जाऊ उस समाज की नज़रों में जिसके बीच मुझें रहना है? नहीं ऐसा नहीं कर पाऊँगी।- सुचित्रा की आवाज़ में दुःख और अन्तःकरण की हार साफ देखी जा सकती थी।
हां, सही कह रही हो। पर बताओ कि क्या दिया है उस समाज ने तुम्हें? ज़िन्दगी रंगों से भरी होती है, और समाज ने तुम्हारे हिस्से में सफ़ेद रंग चुना है। सही है। जो ठीक लगे करो। मैंने पहले भी नहीं रोका और अब भी नहीं रोकूँगा। पर फ़िलहाल तो आज मैं और पिताजी तुम्हारे घर आ रहे है। बाबूजी से तुम्हारी शादी की बात करने। और मुझें उम्मीद है कि बाबूजी हां ही करेंगे। पर इससे पहले तुम्हारा जवाब लेना जरूरी समझा।- सतीश ने कहा।
अगली सुबह सुचित्रा गहरी विचारधारा में डूब गई। अंत में ये फैसला हुआ कि उसे अपनी ज़िन्दगी दोबारा से शुरू करनी ही चाहिए। समाज की बाते सोच सोचकर अपने जीवन को नरक बनाना ईश्वर की दी हुई इस ज़िन्दगी का अपमान है।
राकेश की फ़ोटो के पास जाकर वो घुटने ज़मीन पर टिकाकर बैठ गयी और मन ही मन कहा-राकेश, मुझे हिम्मत दो कि मैं इस समाज से लड़ सकूँ। अपने लिए नहीं तो अपनांे के लिए सही। तभी तस्वीर पर से एक फूल उड़कर उसके आँचल पर आ गिरा। सुचित्रा ने उसे उठाकर अपनी साड़ी के एक रेशमी डोरे में बांध लिया। वह उठकर बाबूजी के कमरे में गयी। बाबूजी आराम कुर्सी पर बैठे थे, आंखे बंद थी। सुचित्रा उनके पैरों पर सर रखकर रो पड़ी।
बाबूजी…. मैं पुनर्विवाह के लिए तैयार हूं। अब आपको और कष्ट नहीं दे सकती। मुझे अब सिर्फ आप सबकी चिंता है, समाज की नहीं। मुझें आशीर्वाद दें। पर बाबूजी नहीं उठे। सुचित्रा ने उनके चेहरे की और देखा और फिर उनके घुटनों पर सर रखकर फ़ूट फ़ूटकर रोने लगी। तभी घर का दरवाज़ा खुला। सतीश अपने पिताजी के साथ आया था।उन्हें देखकर सुचित्रा ने आंसू पोछें और सफ़ेद साड़ी का पल्लू सर पर रखते हुए बोली- सतीश बाबूजी सो गये।
कोई बात नहीं सुचित्रा। हम इंतेज़ार कर लेंगें।
सतीश ने कहा।
नहीं सतीश…. बाबूजी हमेशा के लिए सो गए।